प्यार-व्यार ; अविनाश कुमार
“अदना सा तो सपना है आ ऊहो पर हंगामा है । बोलता है संतुष्ट रहो; ईहो कोई बात है, काहे रहें ? है ही का हमरे पास, एगो छोटका गो कमरा, एगो अखड़ा खाट आ एगो पड़ोसी का जंगला. गाम में एगो कठही गाड़ी था ऊहो.
हम मिथिला के विकास के लिये माँगते हैं
अब कानों को सुनने से तो नहीं रोक लीजिएगा, तो हमने भी सुन लिया । यूं ही चलते चलते कोई कह रहा था कि हम मांगते हैं । जी हाँ पैसा । जब कानों ने सुन ही लिया तो दिल और दिमाग पर क्या बिता होगा वह तो पता नहीं लेकिन बता दूं…
एक पत्र ! मिथिला के यूवाओं के नाम
जिंदाबाद साथियों ! नववर्ष कि मंगलमय शुभकामनाओं के साथ ! मिथिला स्टूडेंट यूनियन आप सबों के स्वर्णिम भविष्य की कामना करती है । साथियों हमारे विश्वविद्यालय में व्याप्त कुव्यस्था पर विशेष प्रकाश डालने की आवश्यकता नहीं है । सब कुछ प्रत्यक्ष है ….प्रमाण क्या दूँ !
मैथिल बुद्धिजीवीयों की विडम्बना
भूख, कुपोषण, दरिद्रता , पलायन एवं बेरोजगारी से त्रस्त मिथिला के लिए नए आशा का संचार करने वाली…! मिथिला क्षेत्र की दुर्दशा को मुद्दा बनाकर मिथिला के जनमानस में पहचान बनाने वाली संगठन….
चट्टानी एकता जरूरी है मिथिला के विकास के लिए
आज यह सवाल उठता है कि हम पिछड़े क्यों ? पूरे विश्व की सबसे उपजाऊ मिटटी बंजर कैसे हो गई ? पलायन घर घर की कहानी कैसे बन गई ? हमारे मां, बाप, भाई, बहन की आंखें रेलवे स्टेशन को….
ख़ुशी – तेरे नाम एक खुला ख़त
ख़ुशी कैसी हो ? तेरे नाम से पहले कोई विशेषण अच्छा नहीं लगता मुझे | मुझे सिर्फ तुम ‘तुम जैसी’ ही अच्छी लगती हो | पिछले कुछ दिनों से जिस्म कि तकलीफें बढ़ गयी थी, लोग-बाग़ के साथ साथ आलमारी में लगा सीसा भी शिकायत करने लगा था |
मेरे जन्मदिन पर…….
कुछेक वर्ष पहले मेरे जन्मदिवस पे मेरे पिता ने मुझे इस जीवनोपयोगी कविता से उपहृत किया था। मैं न्यूनाधिक्य मूढ़ पता नहीं कितना कसूँगा इस के कसौटी पर…
चुपचाप कम्बल ओढ़ के घी पीते रहिए
ऐसा कभी होता नहीं था. समय बदला जिम्मेवारी बदली और फिर यूँ लगा कि आसपास का पूरा संसार ही बदल गया. हर पल गुस्सा आना, मुहँ से गाली निकलना, चिड़चिड़ापन जीवन का एक अंग बन गया. सुहाने सपने
मिथिला आंदोलन – PART 2
बचपन से ही हमें समझाया जाता है कि जब तक तुम्हारे पास कोई रोड मैप नहीं होगा तब तक तुम कोई काम नहीं कर सकते हो. हम भी तो यही आजतक समझते रहे