देश का पहला ‘पुस्तक-गाँव’

सतारा के पंचगनी से लेकर महाबलेश्वर तक की सरजमीं को सुरम्य बनानेवाली पहाड़ी जनपद में छोटी-सी बस्ती है – भिलार । मुश्किल से दो ढ़ाई सौ परिवारों वाली किसानी बस्ती । आबादी यही कोई 28-29 सौ के बीच ही ।  बस्ती से दूर – खेतों और बगीचों की ओर चलें जायें तो जीभ की सरसता बढ़ जाये और बस्ती के भीतर – घरों और दालानों तक पहुँच जायें तो मन-आत्मा की सरसता ।

याद उनको मेरी भी आती तो होगी !

सामाजिकता का चलन ख़त्म होने के साथ हमारी उम्र के लोगों के लिए होली अब स्मृतियों और पुराने फिल्मी गीतों में ही बची रह गई है. आज भोले बाबा की…

मैं, मेरा गाँव और आम का गाछी

मेरे गाछी का बम्बई आम बोना गया है गजपक्कू मुझे बहुत पसंद है इसलिए मेरे बार-बार व्यस्तता बताने के बावजूद माँ का आदेश था की कल सुबह आम टूटने से पहले गाँव पहुँचो ! उम्र के लिहाज से युवा अवस्था मे प्रवेश कर चुका हूँ लेकिन दिल से बच्चा रजनीश को क्या और कौन पसन्द है माँ से बेहतर कौन समझेगा भला ।

“खा लो, नहीं तो एक बगड़ा का मौस घट जायेगा!”

गाँव से दूर रहना ही “हेहरु” हो जाना हो जाता है। और तब जब आप छात्र-जीवन का निर्वहन कर रहे होते हैं। कब खाए? नहीं खायें? किसी को कोई परवाह नहीं। बंद कमरे में आपको कोई नहीं पूछता। रूम पार्टनर होगा भी तो उसकी भी परिस्थिति आपके ही बरबार होती है। जबतक चल रहा है तबतक तो ठीक है, नहीं तो किसी दिन अंठा कर सो गये। या फिर दुकान का कोई आइटम खाइए जो भूख मिटाने मात्र के लिये भी काफी नहीं होती है। खाने इत्यादि के चक्कर में मैंने कितनों को शहर छोड़ते देखा है।

का करें सर, पैसा तो है नही ! चक्की बेच दें ?

भरत आज भरथा से भरत भाई हो गए हैं । आज आप इनके गांव जाओ और किसी को पूछो कि भरत जी का घर कहाँ है तो लोग आपको इनके घर तक पहुँचा देंगे, पर चलते-चलते जरूर पूछ देंगे कि कोनों कंपनी से आये हैं का ? बहुते कंपनी वाला सब उनके पास आते रहता है ।

त्रिशंकु वाली स्थिति है जहां ना आप मूलवासी हैं ना ही प्रवासी

गाँव छोड़ने के बाद चित्त उद्विग्न है। गाँव में बाल सखा किशुन से मुलाकात हुई। पूछा कि आजकल क्या कर रहे हो तो जबाब दिया की इज्जत बचा कर दो वक्त की रोटी कमा रहा हूँ। तुम लोगों ने गाँव छोड़ दिया कभी खोज खबर भी नहीं लेते। किसी न किसी को तो गाँव में रहना चाहिए सो मैं गाँव में ही रहता हूँ।

शहर को भी खूबसूरत, गाँव के लोग ही बनाते हैं !

शहर में कोलाहल बढ़ गयी है और गर्मी भी। ये लोगों को तंग कर रही है । रात से ज्यादे दिन सुनसान हो रहे हैं । लोग स्विचों की हवा चाह रहे हैं । बन्द कमरे भर रहना चाह रहे हैं ।

बादल बारिश और बेपरवाह

आज सुबह से ही मौसम काफ़ी अच्छा था, घर से ऑफिस के लिए अभी निकला ही था कि बारिश शुरू हो गयी, सामने एक मकान था तो फटफटिया खड़ा कर छज्जे के नीचें शरण लिया, काफ़ी देर तक 

गाँव से इतना इरिटेसन क्यों ?

जहाँ आज की युवा पीढ़ी गाँव को हेट करने लगी हैं वहीं कुछ युवा गाँव से जुड़ी बातें, यादें एवं सपनो को कलम से सजा कर पेश करते रहते हैं तो आईये पढ़ते है सागर झा के कलम से निकला यह आलेख “गाँव से इतना इरिटेसन क्यों ?”

आर्केस्ट्रा और ताक झांक

स्टेज सज ही रहा था, साउंड बॉक्स लाइट और म्यूजिकल इंस्ट्रूमेंट लगाया जा रहा था, स्टेज के आगे युवाओं की भीड़ जमने शुरू हो गए थे. कुछ लोग इधर उधर टहल रहे थे.