नुति : पहली चिट्ठी

नुति को नहीं पता कि कहाँ से शुरुआत हो । …मगर हाँ, फ़िलहाल शायद उसे बस एक माध्यम चाहिए जिसे वो अपनी बात कह सके । उसके मन की वो सारी बातें जो समाज-परिवार के बनाये नियमों के अंदर फिट नहीं बैठते । दरअसल नुति को ऐसा लगता है कि या तो ये ऊपर वाले की गलती है या फिर नुति के दिमाग में ही कोई नुक्स है । यदि ऐसा नहीं होता तो आखिरकार आते ही क्यों उसके मन में ऐसी बातें । अब या तो ये सिस्टम बदले या फिर मन में सिस्टम के खिलाफ आने वाले विचार । लेकिन इतना सब क्यूँ और कैसे …. इसलिए फ़िलहाल उसे एक जरिया चाहिए जो उसके समाज-परिवार वाले सिस्टम से भी न हो और भरोसेमंद भी हो ।

हालाँकि यह है बड़ा दुष्कर … शायद असंभव के करीब लेकिन फिर भी ऐसा जरिया तो चाहिए ही । कैसा जरिया ? हाँ… इसे परिभाषित करना बेहद जरुरी है । स्पेसिफिकेशन सेट हो तो शायद ढूँढना आसान हो जाये ।

तो नुति को एक ऐसा जरिया चाहिए जिसके सामने उसे झूठ बोलने की जरुरत न हो । जिसके सामने वो ठीक वैसी ही बनी रह सके जैसी वो वास्तव में है । कुछ ऐसा जहाँ वो सहज और बेझिझक होकर अपनी अच्छाइयों के साथ अपने अंदर की तमाम बुराइयां भी बता सके…. वैसे तो वास्तविक जीवन में वो अक्सर अपनी इच्छा से हाँ-ना, पसंद ना पसंद जाहिर करने में असमर्थ होती है लेकिन अपने इस जरिये को बता देना चाहती है कि वहां उसकी ना थी या अमुक बात उसे पसंद या फिर नापसंद थी । वो बता देना चाहती है कि अमुक समय वो भले सबकुछ स्वीकार गयी लेकिन उसे वो गंध, वो स्वाद या वो बात पसंद नहीं आयी थी ।

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ऐसा भी नहीं है कि नुति परिवार-समाज की नियमावली के खिलाफ जाना चाहती और न ही इस नए जरिये से उसकी कोई अपेक्षाएं हैं… वो तो बस उसे अपनी बात कह देने भर के लिए कोई चाहिए । कहना क्या… उसे तो अपना एंगल भर बताना है। क्योंकि उसे लगता है कि ऐसा करने से उसका कोई भी दुःख नासूर नहीं बनेगा । इससे वो उस चलती आ रही नियमावली भी फॉलो कर लेगी । ऐसा करने से कुछ विशेष नहीं बस उसका मन हल्का हो लेगा । जिससे उसकी और समाज- परिवार की जिंदगी बिना किसी परेशानी के शायद थोड़ी खुशफहमी से ही किन्तु अनवरत चलती रहेगी ।

न न नुति ऐसी नहीं है… ग़लतफ़हमी में मत रहिएगा । ऐसा वैसा सोचेंगे तो – “तीखणी है वो भटिण्डा की” असल में वो न तो बंधनों को तोड़ना  चाहती है और न ही कोई क्रांति लाना चाहती है । वो अपने सामने खींची लक्ष्मण रेखा में रहकर, सारे बंधनों में बंधी हुई बस अपने मन की बात इस दायरे से बाहर किसी जरिये को बता देना चाहती है ताकि विचारों को मन में दफ़नाने से कोई नासूर न पैदा हो जाये उसके अंदर । उसे बखूबी पता है कि अपनी पहचान रखकर अपने ही दायरे (परिवार-समाज) में यह सब कुछ नहीं शेयर कर सकती है । वजह वही पुराना – हम चाहे हमारे समाज में कितना भी नारीमुक्ति और वीमेन इम्पावरमेन्ट का ढिंढोरा पीट लें लेकिन यह सब स्वीकारना तो दूर, बताना भी बड़ी बवाली चीज हो जाएगी ।

असल में नुति का यह मानना है कि जीवन को सीधा सीधा ब्लैक एंड वाइट में नहीं देखना चाहिए । क्योंकि इससे जीवन मुश्किल ही नहीं, दुष्कर हो जायेगा । इसलिए इसमें थोड़ा ग्रे भी होना चाहिए बशर्ते यह ग्रे, ब्लैक या वाइट पर कोई असर न डाले । लेकिन इस ग्रे की जरा सी गुंजाईश भर जरूर हो ।

तो नुति इस ग्रे को शेयर करने का एक जरिया चाहती है । एक ऐसा जरिया जो अपना न हो, दायरे से बाहर हो मगर अपने ही पिता, भाई, बहन, प्रेमी या दोस्त सा हो । जो उसे और उसके अंतर्मन के सच को सुनें… हो सके तो इन सब ग्रे को भुलाने को (ब्लैक एंड वाइट को बिना छुए) उसे थोड़ा बहला दे… कुछ कहानियां सुना दे… डाँट दे, या थोड़ी पॉजिटिविटी डाल दे..

तो आइये दुआ करें कि नुति को उसका वो जरिया मिले और उसके ग्रे की भी कहानियाँ बने !


praveen jha

लेखक : प्रवीण झा

कंटेंट साभार : ब्लॉग बकैत बेलौनियाँ

लेखक अपना परिचय देते हुए कहते हैं – “भीड़ में से ही एक हूँ । एक कीड़ा है अंदर जो वर्तमान में सहज न रहकर भविष्य की सोच में रहता है, अपने अलावा सबकी चिंता में रहता है । एक खेतिहर संयुक्त परिवार से हूँ, वाजिब है, मिट्टी का सोंधापन भी है अंदर कहीं न कहीं । मेरे गाँव में दबी हैं जड़ें मेरी, जो ख़ुद को शहर की रंगीनियों से मुरझाने को बचाने में प्रयासरत है ।”

::विचारबिन्दु’ पे डायरी लिखने के सीरिज में आप इन्हें क्रमशः पढ़ पाएंगे ! हम श्रीमान प्रवीण झा जी का हार्दिक स्वागत करते है ! आप भी कीजिये, कंटेंट अच्छा लगे तो शेयर भी कीजिये । जय हो

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