याद उनको मेरी भी आती तो होगी !

सामाजिकता का चलन ख़त्म होने के साथ हमारी उम्र के लोगों के लिए होली अब स्मृतियों और पुराने फिल्मी गीतों में ही बची रह गई है. आज भोले बाबा की बूटी का प्रसाद ग्रहण कर यूट्यूब पर अपने मनपसंद पुराने होली गीत सुन रहा था कि गांव में बीती बचपन की कई होलियां याद आ गईं. तब होली के हफ्ता भर पहले से हम गांव के कुछ लड़के-लडकियां खेलने के बहाने रंग लेकर किसी बगीचे में या तालाब के किनारे एकत्र हो जाया करते थे. लडकियां अलग और लड़के अलग. हमने नियम बना रखा था कि हर लड़का हर लड़की को रंग नहीं लगाएगा. लड़कियों को स्वयंबर में आज के दिन के लिए अपना पति चुनने की आज़ादी होती थी. वे अपना दुल्हा चुनतीं और उसके बाद शुरू होता था जोड़ियों में एक दूसरे को रंग, धूल, कीचड़ लगाने का सिलसिला. इसे हम ‘कनिया-दूल्हा’ का खेल कहते थे. थक जाने के बाद हम एक-दिवसीय ‘पति-पत्नी’ पति द्वारा घर से चुराकर लाई हुई मिठाई, पूड़ी-पुआ या पेड़ से तोड़े हुए अमरुद का मिलकर भोग लगाते. लड़कियों को कुछ नहीं लाने की आजादी होती थी. आज हिसाब लगाने बैठा तो बचपन की उन भूली-बिसरी पत्नियों की संख्या डेढ़ दर्जन से कुछ ज्यादा ही निकली. अपना गांव छूटने के बाद उनमें से किसी एक से भी कभी दुबारा मिलना नहीं हुआ. अब तो उनके नाम और चेहरे तक याद नहीं रहे. क्या पता उनमें से दो-चार यहां फेसबुक पर भी मौजूद हों और हम एक दूसरे को पहचान नहीं पा रहे हों. फगुनहट चढ़ते ही उन सबको बहुत मिस करने लगा हूं. कोई है यहां ?

अबतक दादी-नानी बन चुकी बचपन की मेरी डेढ़ दर्जन से ज्यादा हरजाई पत्नियों,क्या होली में भी आपको अपने इस परित्यक्त पति की याद नहीं आती ?

आलेख : पूर्व आई० पी० एस० पदाधिकारी, कवि : ध्रुव गुप्त