विवेकानंद ने बढ़ाया भारतीय संस्कृति का मान

यूग पुरुष “स्वामी विवेकानंद” 1893 में विश्व धर्मसंसद में भाग लेने शिकागो ( अमेरिका ) गए थे ! अभी धर्मसंसद में कुछ ही दिन शेष थे |धर्मसंसद में न उनका एतिहासिक उद्बोधन हुआ था और न उन्हें ख्याति मिली थी, उस समय उन्हें कोई नहीं जानता था । अमेरिका में पहुंचने के बाद भी वे सन्यासी के वेशभूषा में रहते थे । कषाय वस्त्र, सिर पर पगड़ी, और कंधो पर चादर डाली हुई । इसी वेशभूषा में एक दिन शिकागो की सडकों पर भ्रमण कर रहे थे  ।

अमेरिका के वासियों के लिए ये वेशभूषा न सिर्फ अचरज की वजह थी बल्कि काफी हद तक उनके लिए यह उपहास का  विषय था । स्वामीजी के पीछे-पीछे चल रही एक अमेरिकी महिला ने अपने साथ के पुरुष से कहा,

‘जरा इन महाशय को तो देखो , कैसी विचित्र पोशाक पहन रखी है !’ स्वामी विवेकानंद ने सुन लिया और समझ भी लिया की ये  अमेरिकी उनकी इस भारतीय वेशभूषा को हेय नजरों से देख रहें हैं ।

वे रुक गए और उस महिला को संबोधित कर बोले, ‘बहन ! मेरे इन वस्त्रों को देखकर आश्चर्य मत करो । तुम्हारे इस देश में कपड़े ही सजनता की कसोटी हैं, किन्तु मैं जिस देश से आया हूँ, वहाँ सज्जनता की पहचान मनुष्य के कपड़े से नहीं, बल्कि उसके चरित्र से होता है । कपड़े तो उपरी दिखावा भर हैं । चरित्र व्यक्तित्व का आधारभूत त्वत है ।’

स्वामीजी के सटीक उत्तर को सुनकर उस महिला का सिर शर्म से झुक गया । इसके बाद जब विश्व धर्मसंसद  आयोजन हुआ तो स्वामीजी का अद्भूत संबोधन सुनकर अमेरिका वासियों के मन में उनके प्रति गहरी सम्मान का भाव आ गया और भारत के विषय में उनकी सोच बदल गई । इस तरह स्वामीजी ने भारतीय संस्कृति को मान दिलाया  ।

“वक्ति के आचरण से उसकी सच्ची पहचान होती है ।”  –  स्वामी विवेकानंद

“संस्कारशीलता वस्त्र या आभूषण आदि से नहीं, बल्कि कर्म की श्रेष्ठता से प्रतिबिंबित होती है – स्वामी विवेकानंद                                                                                                         

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