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“पालतू बोहेमियन” के कारण मैं अपनी स्मृतियों में लौट गया।
अच्छी किताब है। पतली भी। कई बार खोजा लेकिन किसी न किसी किताब के बीच दुबक जाती थी। कल पढ़ ही ली। मज़बूत स्मरण शक्ति वाला ही संस्मरण लिख सकता है। प्रभात रंजन की पालतू बोहेमियन पढ़ते हुए लगा कि मनोहर श्याम जोशी से मिलते वक्त वे नज़र और स्मरण शक्ति गड़ा कर मिला करते होंगे। मनोहर श्याम जोशी से मैं भी मिला हूं। उसी साकेत वाले घर में कुछ दिनों तक जाता रहा हूं। फ़िल्म लेखन सीखने के लिए। अंधेरा लिए सुबह के वक्त बेर सराय से बस लेकर जाता था। समय के पाबंद थे। मुझे अब याद नहीं कि मैंने कैसे उनसे संपर्क किया था और उन्होंने क्यों हां कर दी। क्यों जाना छूट गया यह भी याद नहीं। लेकिन उनके घर जाता था। बैठकर स्क्रीप्ट की बारीकियां सीखता था और लौट कर बेर सराय के पार्क में खुले आसमान के नीचे फ्रेम सोचा करता था। उन्होंने सम्मान के साथ अपने गुर दिए। कभी बुरा अनुभव नहीं हुआ। पालतू बोहेमियन मेरी कमज़ोर स्मृतियों को चुनौती देने वाली किताब है। इसीलिए पढ़ता भी चला गया। वैसे व्यक्तिगत नाता नहीं भी होता तो भी यह पढ़ी जाने वाली किताब है।