कवि सुमित्रानंदन पंथ की कविताएँ

हिंदी साहित्य के छायावाद, रहस्यवाद एवं प्रगतिवादी कविसुमित्रानंदन पंथ” का जन्म 20 मई 1900, एवं अवसान 28 दिसम्बर 1977 को हो गया. हिंदी साहित्य की अनवरत सेवा के लिए इन्हें 1961 में पद्मभूषण 1968 में ज्ञानपीठ, साहित्य अकादमी एवं सोवियत लैंड नेहरु पुरुस्कार जैसे उच्च श्रेणी के सम्मानों से अलंकृत किया गया. हिंदी के विषय में सुमित्रानंदन पंथ का कहना था “हिन्दी हमारे राष्ट्र की अभिव्यक्ति का सरलतम स्त्रोत है”

इनकी प्रमुख कृतियाँ हैं

“चितंबरा कविता संग्रह, ग्रंथि, गुंजन, ग्राम्या, यूगांत, स्वर्णकिरण, कला और बुढा, चाँद, लोकायतन, सत्यकाम आदि”


बसंत के आगमन पर गांव में फैली हरयाली पर सुमित्रानंदन पंथ प्रकृत चित्रण करते हैं, और गांव की सम्पन्नता को दर्शाते है :- 

हँसमुख हरियाली हिम-आतप

सुख में अलसाये से सोये,

भींगी अंधियाली में निशि की

तारक स्वप्न में से खोये

मरकत डिब्बे सा खुला ग्राम

जिस पर नीलम नभ अच्छादन

निरुपम हिमांत ए स्निग्ध शांत

निज शोभा से हरता जन मन ।

-सुमित्रानंदन पंत


जीना अपने ही में

जीना अपने ही में… एक महान कर्म है
जीने का हो सदुपयोग… यह मनुज धर्म है
अपने ही में रहना… एक प्रबुद्ध कला है
जग के हित रहने में… सबका सहज भला है
जग का प्यार मिले… जन्मों के पुण्य चाहिए
जग जीवन को… प्रेम सिन्धु में डूब थाहिए
ज्ञानी बनकर… मत नीरस उपदेश दीजिए
लोक कर्म भव सत्य… प्रथम सत्कर्म कीजिए

-सुमित्रानंदन पंत


सुमित्रानंदन पंथ की कृतियाँ में से प्रमुख एक कृति “युग पथ” जिसका एक कविता

अमर स्पर्श”

 खिल उठा हृदय,

पा स्पर्श तुम्हारा अमृत अभय!

खुल गए साधना के बंधन,
संगीत बना, उर का रोदन,

अब प्रीति द्रवित प्राणों का पण,
सीमाएँ अमिट हुईं सब लय।

क्यों रहे न जीवन में सुख दुख
क्यों जन्म मृत्यु से चित्त विमुख?

तुम रहो दृगों के जो सम्मुख
प्रिय हो मुझको भ्रम भय संशय!

तन में आएँ शैशव यौवन
मन में हों विरह मिलन के व्रण,

युग स्थितियों से प्रेरित जीवन
उर रहे प्रीति में चिर तन्मय!

जो नित्य अनित्य जगत का क्रम
वह रहे, न कुछ बदले, हो कम,

हो प्रगति ह्रास का भी विभ्रम,
जग से परिचय, तुमसे परिणय!

तुम सुंदर से बन अति सुंदर
आओ अंतर में अंतरतर,

तुम विजयी जो, प्रिय हो मुझ पर
वरदान, पराजय हो निश्चय!

-सुमित्रानंदन पंत


चंचल पग दीप-शिखा-से धर
गृह,मग, वन में आया वसन्त!
सुलगा फाल्गुन का सूनापन
सौन्दर्य-शिखाओं में अनन्त!

सौरभ की शीतल ज्वाला से
फैला उर-उर में मधुर दाह
आया वसन्त, भर पृथ्वी पर
स्वर्गिक सुन्दरता का प्रवाह!

पल्लव-पल्लव में नवल रुधिर
पत्रों में मांसल-रंग खिला,
आया नीली-पीली लौ से
पुष्पों के चित्रित दीप जला!

अधरों की लाली से चुपके
कोमल गुलाब के गाल लजा,
आया, पंखड़ियों को काले–
पीले धब्बों से सहज सजा!

कलि के पलकों में मिलन-स्वप्न,
अलि के अन्तर में प्रणय-गान
लेकर आया, प्रेमी वसन्त,–
आकुल जड़-चेतन स्नेह-प्राण!

काली कोकिल!–सुलगा उर में
स्वरमयी वेदना का अँगार,
आया वसन्त, घोषित दिगन्त
करती भव पावक की पुकार!

आः, प्रिये! निखिल ये रूप-रंग
रिल-मिल अन्तर में स्वर अनन्त
रचते सजीव जो प्रणय-मूर्ति
उसकी छाया, आया वसन्त!

-सुमित्रानंदन पंत


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