डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन-जीवनी

बहुमुखी प्रतिभा के धनी डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन महान दार्शनिक, तत्ववेत्ता, धर्मशास्त्री , शिक्षाशास्त्री, एवं कुशल राजनीतिज्ञ थे । इन्होंने भारत के राष्ट्रपति जैसे पद को सुसोभित किया । 1954 में इन्हें भारत के सबसे बड़े नागरिक सम्मान भारत रत्न से नवाजा गया।

डॉ राधाकृष्णन का जन्म 5 सितम्बर 1888 को तमिलनाडु के तिरुतनी नामक गाँव में एक सामान्य ब्रह्मण परिवार में हुआ था इनके पिता का नाम ‘सर्वपल्ली वीरास्वामी’ और माता का नाम ‘सीताम्मा’ था। इन्हें बचपन से ही अध्ययन में काफी रूचि थी । इनकी प्राथमिक शिक्षा-दीक्षा इसाई मशीनरी से हुई । 12 वर्ष के अवस्था में ही इन्होंने बाइबिल के सभी महत्वपूर्ण अंश याद कर लिए । इसी अवस्था में इन्होंने स्वामी विवेकानंद और वीर सावरकर जी का भी अध्ययन किया ।

प्राथमिक से उच्चतर शिक्षा प्राप्त करने के क्रम में इन्हें कई बार छात्रवृति भी मिली । मद्रास क्रिश्चयन कॉलेज से दर्शन शास्त्र में एम.ए. किये और मद्रास रेजीडेंसी कॉलेज में इसी विषय के सहायक प्राध्यापक का पद सम्भाले । 1931 से 1936 तक आंध्रप्रदेश विश्वविद्यालय में  । 1939 से 1948 तक बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में । एवं 1953 से 1962 तक दिल्ली विश्वविद्यालय में कुलपति के पद पर प्रतिष्टित हुए ।

डॉ राधाकृष्णन किसी भी विषय पर रोचक ढंग से व्याख्यान दिया करते थे छोटी- छोटी कहानियों के माध्यम से उदाहरण प्रस्तुत कर विषय को सरल बना देते थे । अपने इस गुण के कारण वो दर्शनशास्त्र जैसे जटिल विषय को वर्ग में  सरल बना देते थे । डॉ राधाकृष्णन महात्मा गाँधी और रविन्द्रनाथ टैगोर के विचारों से बहूत प्रभवित थे । उनके विचारों को आगे बढ़ाने हेतु उन्होंने 1918 में ‘रवीन्द्रनाथ टैगोर का दर्शन’ शीर्षक से एक पुस्तक प्रकाशित की ।

Must Read : डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन के प्रेरणात्मक विचार

डॉ राधाकृष्णन चुकी इसाई मसिनरी से शिक्षा प्राप्त किये थे जिसका मूल उद्देश्य था छात्रों में पाश्चात्य सभ्यताओं का समावेश कर हिन्दू धर्म के प्रति हेय भावना का विकास । परन्तु उन्होंने हिन्दू धर्म का गहन अधयन किया । ये जानना चाहते थे कि वस्तुतः किस संस्कृति के विचारों में चेतनता है और किस संस्कृति के विचारों में जड़ता है ? अध्ययन क्रम में उन्होंने जाना भारत के दूरस्थ स्थानों पर रहने वाले ग़रीब तथा अनपढ़ व्यक्ति भी प्राचीन सत्य को जानते थे । इस कारण इहोनेन तुलनात्मक रूप से यह जान लिया कि भारतीय आध्यात्म काफ़ी समृद्ध है और क्रिश्चियन मिशनरियों द्वारा हिन्दुत्व की आलोचनाएँ निराधार हैं। इससे इन्होंने यह निष्कर्ष निकाला कि “भारतीय संस्कृति धर्म, ज्ञान और सत्य पर आधारित है जो महुष्य को जीवन का सच्चा सन्देश देती है ।” इनकी पुस्तक ‘द रीन आफ रिलीजन इन कंटेंपॅररी फिलॉस्फी’ से इन्हें अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पहचान मिली ।

डॉ राधाकृष्णन के ओजस्वी प्रतिभा से अविभूत होकर इन्हें सम्विधान निर्मात्री सभा का सदस्य बनाया गया । 1952 में इन्हें सोवियत संघ का विशिष्ट राजदूत बनाया गया । और इसी वर्ष उपराष्ट्रपति के पद पर प्रतिष्टित हुए । 1954 में उन्हें भारत के सबसे बड़े नागरिक सम्मान भारतरत्न से सम्मानित किया गया । 1962 में डॉ राजेन्द्र प्रसाद का कार्यकाल समाप्त होने के बाद इन्होंने राष्ट्रपति का पद संभाला । 13 मई, 1962 को 31 तोपों की सलामी के साथ ही डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन की राष्ट्रपति के पद पर प्रतिष्टित हुए ।

“यह विश्व के दर्शन शास्त्र का सम्मान है कि महान भारतीय गणराज्य ने डॉक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन को राष्ट्रपति के रूप में चुना और एक दार्शनिक होने के नाते मैं विशेषत: खुश हूँ । प्लेटो ने कहा था कि दार्शनिकों को राजा होना चाहिए और महान भारतीय गणराज्य ने एक दार्शनिक को राष्ट्रपति बनाकर प्लेटो को सच्ची श्रृद्धांजलि अर्पित की है।”  – प्रसिद्ध दार्शनिक बर्टेड रसेल

सन्‌ 1962 में जब वे राष्ट्रपति बने थे, तब कुछ शिष्य और प्रशंसक उनके पास गये और उन्होँने उनसे निवेदन किया कि वे उनके जन्म दिन को शिक्षक दिवस के रूप में मनाना चाहते हैं । उन्होंने कहा- “मेरे जन्मदिन को शिक्षक दिवस के रूप में मनाने से निश्चय ही मैं अपने को गौरवान्वित अनुभव करूँगा।” तबसे आज तक 5 सितम्बर सारे देश में उनका जन्म दिन शिक्षक दिवस के रूप में मनाया जा रहा है ।

Must Readमहात्मा गाँधी के दर्शन / चिन्तन

डॉ राधाकृष्णन का भारतीय संस्कृति के प्रति आगाध निष्ठा थी । वो भारत को शिक्षा के क्षेत्र में क्षितिज पर ले जाने को निरंतर प्रयासरत रहे । अपने जन्म दिवस को शिक्षक दिवस के रूप में समर्पित करने वाले डॉ राधाकृष्णन के ह्रदय में शिक्षकों के प्रति अगाध श्रद्धा भाव था । प्रतिवर्ष 5 सितम्बर को शिक्षकों के सम्मान के रूप में शिक्षक दिवस सम्पूर्ण भारतवर्ष में मनाया जाता है ।

शिक्षा का उद्देश्य बताते हुए श्री राधाकृष्णन ने कहा कि “मात्र जानकारियाँ देना शिक्षा नहीं है । यद्यपि जानकारी का अपना महत्व है और आधुनिक युग में तकनीक की जानकारी महत्वपूर्ण भी है तथापि व्यक्ति के बौद्धिक झुकाव और उसकी लोकतान्त्रिक भावना का भी बड़ा महत्व है । ये बातें व्यक्ति को एक उत्तरदायी नागरिक बनाती हैं। शिक्षा का लक्ष्य है ज्ञान के प्रति समर्पण की भावना और निरन्तर सीखते रहने की प्रवृत्ति । यह एक ऐसी प्रक्रिया है जो व्यक्ति को ज्ञान और कौशल दोनों प्रदान करती है तथा इनका जीवन में उपयोग करने का मार्ग प्रशस्त करती है । करुणा, प्रेम और श्रेष्ठ परम्पराओं का विकास भी शिक्षा के उद्देश्य हैं ।”

अपने जीवन काल एवं मरनोपरांत डॉ राधाकृष्णन को सम्मानों से नवाजा गया । महान दार्शनिक, तत्ववेत्ता, धर्मशास्त्री , शिक्षाशास्त्री, एवं कुशल राजनीतिज्ञ डॉ राधाकृष्णन 17 अप्रैल, 1975 को प्रातःकाल पंचतत्व में विलीन हो गए । ऐसे महान दार्शनिक जिन्होंने अपने प्रतिभा से विश्व में अपना स्थान बनाये । उन्हें कोटि-कोटि नमन् ।

Comments

No comments yet. Why don’t you start the discussion?

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *