सुख की छाया तू दुख के जंगल में !

मातृ दिवस विशेषांक में कवि, लेखक व पूर्व आईपीएस अधिकारी “ध्रुव गुप्त” जी का आलेख  “सुख की छाया तू दुख के जंगल में !”

मां दुनिया की किसी भी भाषा का सबसे मुलायम और खूबसूरत शब्द है। हमारा पहला प्यार मां ही होती है। हम उसके रक्त, अस्थियों, भावनाओं और आत्मा के हिस्से हैं। जीवन का सबसे पहला स्पर्श मां का होता है। पहला चुंबन मां का। पहला आलिंगन मां का। पहली गोद मां की जो अजनबी दुनिया में आंख खोलने के बाद सुरक्षा, कोमलता, ममता और बेपनाह आत्मीयता के अहसास से भर देता है। हमें पहली भाषा मां सिखाती है। पहला शब्द जो हम बोलते हैं, वह होता है मां। कहते हैं कि ईश्वर हर जगह मौजूद नहीं रह सकता, सो उसने हर घर में अपने जैसी एक मां भेज दी। मां की गोद से उतर जाने के बाद जीवन भर हम मां की तलाश ही तो करते हैं – बहनों में, प्रेमिका में, पत्नी में, बेटियों में, मित्रों में, कल्पनाओं में बनी स्त्री-छवियों में। एक आधी-अधूरी, टुकड़ो में बंटी असमाप्त तलाश जो कभी पूरी नहीं होती। पूरी हो भी कैसे, मां के जैसा कोई दूसरा होता भी तो नहीं।

आप भाग्यशाली है अगर आपको थामने, आपकी फ़िक्र करने और अपनी हर सांस में आपके लिए दुआ मांगने वाली एक मां आपके पास मौज़ूद है। कुछ अभागे लोग मां को खो देने के बाद ही समझ पाते हैं कि उन्होंने क्या खो दिया है। मांएं तो हर उम्र में वैसी की वैसी ही होती हैं – अपनी संतानों के लिए बांहें पसारे हुए। एक उम्र के बाद अपना बचपन और मासूमियत गंवा चुके हम लोगों के लिए हर दिन मां के आगोश में समा जाना आसान नहीं होता। आज ‘मदर्स डे’ के बहाने ही सही, एक बार फिर मां के गले लगकर देखिए ! नहीं है मां तो उसकी यादों से लिपट कर ज़ार-ज़ार रो लीजिए ! यक़ीन मानिए, ज़िंदगी का हर ज़ख्म भर जाएगा।

तेरी आग़ोश से निकले तो उम्र भर भटके
अब भी रोते हैं मगर दर्द किसे होता है !


साभार : “ध्रुव गुप्त” जी के फेसबुक वाल से !