ये सेवाग्राम स्थित परचुरे शास्त्री की कुटी है। संस्कृत के विद्वान परचुरे शास्त्री ने कुष्ठग्रस्त होने के बाद अपने आख़िरी दिन सेवाग्राम आश्रम में ही बिताए थे। नारायण देसाई ने अपनी किताब ‘बापू की गोद में’ परचुरे शास्त्री से महात्मा गांधी के लगाव पर मर्मस्पर्शी ढंग से लिखा है। वह अंश पढ़ें :
“सन् १९३९ में गरमी के दिनों में दरिद्रनारायण के प्रतिनिधि बापू शिमला पहुँचे। वही छोटी-सी चादर , वही छोटा-सा कच्छा और वही सादा तेजस्वी मुख । बापू के जाने से शिमला की सूरत भी बदल गयी थी । वाइसराय से बापू की बातचीत पाँच – सात दिन के लिए स्थगित की गयी थी । इस सप्ताह का उपयोग शिमला के आसपास के पहाड़ों की सैर करने में किया जाय , ऐसे मनसूबे हम बाँधने लगे थे । इतने में बापू का आदेश हुआ ‘ अपना अपना बोरा – बिस्तर बाँधो।’
‘ कहाँ जाना है ? ‘
‘ और कहाँ ? सेवाग्राम वापस । ‘
‘ लेकिन एक सप्ताह बाद फिर से बातचीत आगे चलनेवाली है ? ‘
‘ हाँ , हाँ , लेकिन सेवाग्राम में दो दिन मिलेंगे न ? ‘
‘ वहाँ कौन – सा इतना मह्त्व का काम है ? ‘
‘ परचुरे शास्त्री की सेवा का काम तो महत्त्व का है न ? ‘ बापू ने प्रतिप्रश्न किया । काका निरुत्तर हो गये ।
इस दलील के महत्त्व को जानने के लिए हमें कुछ वर्ष पीछे जाना होगा । एक दिन शाम को बापू से किसीने आकर कहा कि ‘ गौशाला के पीछे एक फकीर जैसा आदमी छिपा खड़ा है। आपको पहचानता है , ऐसा लगता है। ‘
बापू गौशाला पहुँचे । फकीर जैसे दीखनेवाले व्यक्ति ने बापू को साष्टांग प्रणिपात किया । उसके मुँह से संस्कृत श्लोकों की वन्दना प्रस्फुटित हो रही थी ।
‘ अरे , ये तो परचुरे शास्त्री ! कहो , कैसे अचानक आना हुआ ? ‘
परचुरे शास्त्री संस्कृत के प्रकाण्ड पण्डित थे । कुछ दिन साबरमती आश्रम में रह चुके थे । फिर शायद लड़कों की गृहस्थी की व्यवस्था बैठाने चले गये थे। वहीं से खबर लगी कि उनको कुष्ठ रोग की छूत लग गयी है ।
परचुरे शास्त्री ने कहा , ‘ रोग बढ़ गया है । समाज मुझे स्वीकार करने को तैयार नहीं है। मर जाने का निश्चय कर चुका हूँ ।आखिर के दिन आपके आश्रम में आपकी छत्रछाया में बिताकर शांति से मरना चाहता हूँ । मुझे दो रोटियों से अधिक की आवश्यकता नहीं है । यहाँ रहने की अनुमति प्रदान करके अनुग्रह कीजिएगा । ‘
बापू ने तुरंत कहा , ‘ मेरे आश्रम में रहने की तो आपको छूट है , लेकिन आपको मरने नहीं दिया जाएगा । ‘
यह निर्णय करने से पहले बापू को भी थोड़ा सोचना पड़ा था । क्योंकि दूसरे कार्यकर्ताओं की भावना और संसर्ग की सम्भावना का खयाल भी उनको रखना था । देखते – देखते बापू की कुटी के पड़ोस में , लेकिन अन्य कुटियों से कु्छ हटकर , शास्त्रीजी के लिए एक कुटी तैयार हो गयी । एक चारपाई पर शास्त्रीजी का बिस्तर लगा दिया गया और उनके खाने – पीने की व्यवस्था वहीं झोंपड़ी में की गयी । बापू की देखभाल में शास्त्रीजी की चिकित्सा का सारा इंतजाम ठीक हो गया ।

शिमला से दो दिन के लिए बापू ने सेवाग्राम जाने का निर्णय लिया था । क्योंकि उनके मन में देश की आजादी के प्रश्न पर वाइसराय से बातचीत चलाने और एक कुष्ठरोगी की सेवा करने का महत्व समान था ।
कुष्ठरोगी का स्पर्श भयंकर माना जाता है , लेकिन बापू ने परचुरे शास्त्री की सेवा का जो काम अपने जिम्मे लिया था , वह उनके शरीर में मालिश करने का था । परचुरे शास्त्री सेवाग्राम आश्रम आये,तभी उनका रोग असाध्य हो चुका था । फिर भी सेवाग्राम में उनकी जो सेवा और देखभाल की गयी , उससे कुछ समय के लिए उनका स्वास्थ्य कुछ सुधर गया था।उस समय वे हम लोगों को संस्कृत भी पढ़ाते थे । बापू सेवाग्राम से बाहर अधिक समय रहने लगे , तब शास्त्रीजी का स्वास्थ्य फिर से बिगड़ गया । इसलिए उनको दत्तपुर कुष्ठधाम में पहुँचा दिया गया । वहीं उनकी मृत्यु हुई । परचुरे शास्त्री की सेवा का पुण्य श्रेष्ठ था । उनकी बापू ने जो सेवा की , वह भगवान् ईसामसीह की योग्यता की कही जाएगी।”
आलेख : शुभनीत कौशिक