घर में लटकते ताले मानो मुंह चिढ़ा रहें हैं

लगता है मैं ही बदल गया ! नहीं – नहीं यह घर ही बदल गया । अब घर के गेट पर ताले लटके हुए मिलते हैं । पहले तो ऐसा नहीं था । तो फिर मैं सही हूँ न ! घर ही बदला मैं नहीं । सही में यह घर ही बदल गया ।

न आंगन में प्राण रही, न घर के दीवारों में जान, न कोई कमरे में अब वो उर्जा का Flow है और दलान की बेजान कुर्शी की तो बात ही न करें । ऊपर से चारों तरफ के गेट में लटके ताले मानो मुंह चिढ़ा रहें हैं ।

इधर मैं भी पुरे घर को छोड़ बाहर के कमरे में अपने को समेट अपनी एक नई दुनिया रच लेता हूँ । कभी किचन का ताला Irritate करता है, तो कभी भगवान घर का और घर के एक Portion से तो मैंने अपना नाता ही खत्म कर लिया है, मानो वहाँ भूत का बसेरा हो । और सच कहूँ – दिल की बात कहूं तो अपने घर में ही अनजाना सा भय होने लगा है । जी हाँ अपने घर में जिसकी कभी दीवारें मुस्कुराया करती, आंगन गुनगुनाती और जड़े-जड़े से एक संगीत की तरंग निकला करती, लेकिन आज पलायन के दंश ने मानो उसे जिंदा लाश बना दिया है । यूँ लगता है जैसे घर खड़े-खड़े अपने तकदीर पर आंसू बहा रहा है । ऊपर से लटकते हुए ताले ने हवा तक से नाता तोड़ दिया है । फिर वही प्रश्न दिमाग में घुमने लगता है कि मैं तो नहीं बदला ” घर ही बदल गया ” । यही सोच कर संतोष कर लेता हूं । एक किनारे में अपने आप को समेट कहानियाँ लिखता रहता हूँ ।

अविनाश भरद्वाज ( सामाजिक कार्यकर्ता )

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