हमें काश तुमसे मुहब्बत न होती !

जिनके ज़िक्र के बगैर हिंदी सिनेमा का इतिहास नहीं लिखा जा सकेगा। प्रेम की शाश्वत प्यास की प्रतीक मरहूम मधुबाला को उनके यौमे पैदाईश (14 फरवरी) पर उनके व्यक्तिगत जीवन पर केंद्रित आलेख । लेखक : पूर्व आई० पी० एस० पदाधिकारी, कवि : ध्रुव गुप्त 

‘भारत की वीनस’, ‘द ब्यूटी ऑफ़ ट्रेजेडी’ और ‘सौंदर्य साम्राज्ञी’ के नाम से विख्यात अभिनेत्री मधुबाला उर्फ़ मुमताज़ बेग़म ज़हां देहलवी हिंदी सिनेमा की वह पहली अभिनेत्री थी जो अपने जीवन-काल में ही एक मिथक बनी। सिनेमा के परदे पर इस क़दर स्वप्निल सौन्दर्य, ऐसी दिलफ़रेब अदायें, इतनी उन्मुक्त हंसी और वैसी रहस्यमयी मुस्कान सिनेमा के दर्शकों ने उनके पहले नहीं देखी थी। उनके बाद भी शायद नहीं देख पाए। परदे पर उनकी उपस्थिति का जादू ऐसा था कि उनकी औसत दरजे की फिल्म भी तिलिस्म की तरह दर्शकों को सिनेमा हाल तक खींच ले आती थी। उनके बाद हिंदी सिनेमा के दर्शकों में किसी अभिनेत्री का वैसा क्रेज फिर कभी देखने को नहीं मिला। फ़िल्मों के समीक्षक मधुबाला के अभिनय काल को हिंदी सिनेमा का स्वर्ण युग मानते हैं। उनकी मौत के पांच दशक बाद आज भी उनका जादू बरकरार है।

14 फ़रवरी, 1933 को दिल्ली में एक पश्तून मुस्लिम परिवार मे जन्मी मधुबाला अपने माता-पिता की ग्यारह संतानों में पांचवीं सन्तान थी। पिता अयातुल्लाह खां आजीविका की तलाश में जब मुंबई आ बसे तो मुमताज़ का बालीवुड में प्रवेश संभव हुआ। बाल कलाकार के रूप में बेबी मुमताज़ के नाम से उनकी पहली फ़िल्म 1942 की ‘बसन्त’ थी। उनके सहज अभिनय से प्रभावित होकर उस दौर की शीर्षस्थ अभिनेत्री और फिल्मकार,देविका रानी ने उन्हें अभिनय की बारीकियां सिखाई और उन्हें मधुबाला नाम दिया। नायिका के रूप में पहली भूमिका निभाने का अवसर उन्हें 1947 में निर्माता-निर्देशक केदार शर्मा ने अपनी फ़िल्म ‘नील कमल; में दिया। इस फिल्म में राज कपूर उनके नायक थे। इस फ़िल्म की सफलता के बाद उन्हे लोगों ने ‘सौंदर्य साम्राज्ञी’ और ‘वीनस ऑफ़ इंडिया’ कहा। दो साल बाद बाम्बे टॉकीज़ की बहुचर्चित फ़िल्म ‘महल’ ने उन्हें शोहरत की बुलंदियों  पर पहुंचा दिया। उसके बाद जो हुआ, वह इतिहास है। ‘महल’ की सफलता के बाद उस दौर के सभी स्थापित पुरूष कलाकारों – अशोक कुमार, दिलीप कुमार, देवानन्द, भारत भूषण में उनके साथ काम करने की जैसे होड़ लग गई। दो दशक के फिल्मी सफ़र में मधुबाला की कुछ चर्चित फिल्में थीं – नील कमल, पारस, शराबी, हाफ टिकट, झुमरू, बरसात की रात, इन्सान जाग उठा, मुग़ल-ए-आज़म, कल हमारा है, हाबड़ा ब्रिज, चलती का नाम गाडी, फागुन, गेटवे ऑफ़ इंडिया, यहूदी की लड़की, राज हठ, शीरी फरहाद, मिस्टर एंड मिसेज 55, अमर, संगदिल, महल, दुलारी और ज्वाला। के आसिफ़ की फिल्म ‘मुग़ल-ए-आज़म’ उनके अभिनय का उत्कर्ष था जिसमें उन्होंने सलीम की प्रेमिका अनारकली की भूमिका बेहद संवेदनशीलता से निभाई थी।

मधुबाला के पूरे कैरियर में जिस एक बात से पूरी फिल्म इंडस्ट्री और उनके चाहने वाले अनभिज्ञ थे, वह थी उनकी घातक और जानलेवा बीमारी। बचपन से ही उनके दिल में छेद था जिसकी पीड़ा उम्र के साथ बढ़ती चली गई। उस वक़्त इस बीमारी का कोई इलाज़ नहीं था। अपनी कमाऊ बेटी के जीवन का यह रहस्य उनके पिता ने फ़िल्म उद्योग से छुपाकर रखा। ‘मुग़ल-ए-आज़म के सेट पर जब उनकी हालत ज्यादा बिगड़ गई तो यह रहस्य खुला कि उन्हें दिल की कोई बीमारी है। इस जानलेवा बीमारी और उसकी असह्य पीड़ा के बावज़ूद बरसों तक उन्हें सिनेमा की अति व्यस्त रूटीन से फुरसत नहीं मिली। उनकी पूरी सिनेमाई ज़िन्दगी हंसने की नाक़ाम कोशिश करती हुई एक उदास कविता की तरह थी। मधुबाला को याद करते हुए उनकी बहन मधुर भूषण ने एक इंटरव्यू में बताया था कि मधुबाला का दिल इतना कच्चा था कि बात-बात पर भर आता था। जब वह रोती थी तो आंसू थमने का नाम नहीं लेते थे। जब वह हंसती थीं तो हालात ऐसे हो जाते थे कि उनके ठहाके न रुक पाने की वजह से शूटिंग तक कैंसल करनी पड़ जाती थी। मधुबाला के जीवन में अथाह दर्द व्यक्तित्व का दोहरापन उनकी लाईलाज बीमारी के अलावा उनकी तीन-तीन असफल प्रेम कहानियों से आया था।

मधुबाला का जन्म प्रेम का उत्सव माने जाने वाले वैलेंटाइन डे को हुआ था, लेकिन प्यार के लिए वे तमाम उम्र तरसती रही। उन्हें प्यार मिला तो सही, लेकिन आधा-अधूरा जिनके टूटने का दर्द वह जीवन भर महसूस करती रही। मधुबाला का पहला प्यार थे उस दौर के एक्शन फिल्मों के अभिनेता प्रेमनाथ। यह रिश्ता एक साल से भी कम चल सका था। उनकी प्रेम कहानी के बीच मज़हब का फ़ासला था जो किसी तरह पाटा नहीं जा सका। मधुबाला मुस्लिम पठान थीं जिनसे शादी के लिए उसके पिता ने प्रेमनाथ के आगे इस्लाम कबूल करने की शर्त रखी। प्रेमनाथ ने धर्म परिवर्तन से इनकार कर दिया। मधुबाला ने भी झुकने से मना किया और नतीज़तन यह रिश्ता टूट गया।

प्रेमनाथ के बाद मधुबाला की जिन्दगी में आए ट्रेजेडी किंग कहे जाने वाले उस दौर के महानायक  दिलीप कुमार। इस प्रेमकहानी की शुरुआत 1957 में फिल्म ‘तराना’ से हुई जब दिलीप कुमार और मधुबाला पहली नजर में ही एक दूसरे को दिल दे बैठे। इस मोहब्बत का इजहार मधुबाला ने खुद किया था। उन्होंने गुलाब के फूल के साथ एक चिट्ठी दिलीप कुमार को भेजी जिसमें लिखा था – ‘अगर आप मुझसे मोहब्बत करते हैं तो गुलाब का यह फूल कबूल करें।’ दिलीप कुमार ने मुस्कुराते हुए फूल कबूल कर लिया था। उसके बाद दोनों मोहब्बत में इस कदर डूब गए थे कि मधुबाला जहां भी शूटिंग करतीं, दिलीप कुमार सेट पर पहुंच जाते। उनका यह जज़्बाती रिश्ता कई सालों तक चला। इस रिश्ते में धर्म का कोई बंधन नहीं था। लोग मानकर चल रहे थे कि दोनों किसी भी समय विवाह के रिश्ते में बंध जा सकते हैं। उनकी बहुचर्चित प्रेम कहानी में खलनायक एक बार फिर मधुबाला के पिता अताउल्लाह खां ही बने। अताउल्लाह साये की तरह फिल्मों की शूटिंग के दौरान मधुबाला के साथ सेट पर मौजूद रहते थे। नजर उनकी बेहद कड़ी थी। दिलीप कुमार और मधुबाला की नजदीकियों को भी भांपने के बाद सेट पर उनकी टोका-टोकी कुछ ज्यादा ही बढ़ गई। दोनों के बीच रोमांटिक दृश्यों की शूटिंग के दौरान वे निर्देशकों के काम में दखलंदाज़ी करने लगे। उनके अनावश्यक हस्तक्षेप से फिल्मों के निर्देशक ही नहीं, खुद दिलीप कुमार अक्सर खींझ जाते थे। तंग आकर दिलीप कुमार ने मधुबाला के सामने शादी के बाद अपने पिता से रिश्ते तोड़ने की शर्त रख दी। मधुबाला के लिए यह शर्त मानना आसान नहीं था। इसके बाद उन दोनों के बीच आए दिन झगड़े होने लगे। इस गहरे और खूबसूरत रिश्ते के टूटने का निर्णायक कारण बना फिल्म ‘नया दौर’। निर्देशक बी.आर चोपड़ा इस फिल्म के कुछ दृश्यों की शूटिंग मुंबई के बाहर करना चाहते थे, लेकिन अताउल्लाह अपनी बेटी को दिलीप कुमार के साथ किसी कीमत पर बाहर नहीं भेजना चाहते थे। अताउल्लाह और बी.आर.चोपड़ा के बीच के टकराव में दिलीप कुमार ने बी.आर.चोपड़ा का पक्ष लिया। मामला अदालत तक पहुंच गया। दो पठानों के अहम की इस लड़ाई में अंततः मधुबाला और दिलीप कुमार की मोहब्बत बलि चढ़ गई।

गायक अभिनेता किशोर कुमार मधुबाला के जीवन में तीसरे मर्द थे। दोनों ने कई फिल्मों में काम किया था। ‘चलती का नाम गाडी’ के दौरान उसके एक गीत ‘एक लड़की भींगी भागी सी’ की शूटिंग के दौरान मधुबाला के दिल में उनके लिए जगह बनी। किशोर तलाकशुदा थे और मधुबाला टूटी हुई। तमाम उदासियों के बीच भी मधुबाला को हंसना पसंद था और किशोर हंसाने के फन में माहिर। अताउल्लाह खां की शर्त के मुताबिक़ किशोर कुमार ने अपने परिवार की इच्छा के विपरीत धर्म परिवर्तन कर मधुबाला से शादी कर ली। मधुबाला की असाध्य बीमारी का पता किशोर कुमार को शादी के पहले ही चल गया था। शादी के तुरंत बाद वे मधुबाला को लेकर लंदन चले गए। लंदन में डॉक्टरों ने बताया कि उनके दिल में छेद है और उनकी ज़िन्दगी के ज्यादा से ज्यादा दो साल शेष हैं। मधुबाला ने बिस्तर पकड़ ली। अपनी पेशेगत व्यस्तता की वज़ह से किशोर कुमार मधुबाला का बहुत दिनों तक ख्याल नहीं रख सके और उन्हें उनके मायके पहुंचा दिया। हालांकि उन्होंने पत्नी की मौत तक उनकी दवाइयों का खर्च उठाया और कभी-कभार उनसे मिलने भी चले जाया करते थे, लेकिन मधुबाला के आखिरी दिनों की तन्हाइयों का इलाज़ उनके पास भी नहीं था। जिन्दगी के आखिरी कुछ साल मधुबाला ने बिस्तर पर ही बिताए। 23 फ़रवरी,1969 को बीमारी की हालत में ही उनका निधन हो गया। उनके मृत्यु के दो साल बाद उनकी आखिरी फ़िल्म ‘जलवा’ प्रदर्शित हुई थी।

अपने बेपनाह सौंदर्य, ग्लैमर, शोहरत और तीन-तीन प्रेम-संबंधों के बावजूद बेहद तनहा और उदास मधुबाला का व्यक्तित्व उस एक रहस्यमय परछाई की तरह था जो वक़्त की खिड़की पर कुछ उदास धब्बे छोड़ हमारे बीच से असमय ही अनुपस्थित हो गया, लेकिन सिनेमा प्रेमियों के दिलों पर उनका जादुई असर पांच दशकों बाद आज भी क़ायम है। उनके ज़िक्र के बगैर हिंदी सिनेमा का इतिहास नहीं लिखा जा सकेगा। प्रेम की शाश्वत प्यास की प्रतीक मरहूम मधुबाला को उनके यौमे पैदाईश (14 फरवरी) पर खेराज़-ए-अक़ीदत उनकी फिल्म ‘शीरी फरहाद’ के गीत की पंक्तियों के साथ !

खुशियां थीं चार पल की
आंसू हैं उम्र भर के
तन्हाइयों में अक्सर
रोते हैं याद करके
वो वक़्त जो कि हमने एक साथ है गुज़ारा
हाफ़िज़ खुदा तुम्हारा !

Comments

No comments yet. Why don’t you start the discussion?

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *