महान क्रांतिकारी चंद्रशेखर आजाद

“दुश्मन की गोलियों का हम सामना करेंगे आजाद हैं…आजाद रहेंगे” महान क्रांतिकारी, निर्भीक, निडर, दृढ़निश्चयी, सम्राज्यवाद के घोर विरोधी, महान देशभक्त चन्द्रशेखर आजाद का पूरा नाम ( पंडित चन्द्रशेखर तिवारी ) इनका जन्म 23 जुलाई 1906 को मध्यप्रदेश के झावारा नमक स्थान पर हुआ था.  इनके माता का नाम जाग्रानी देवी और पिता का नाम सीताराम तिवारी था. चंद्रशेखर आजाद बचपन से ही निडर थे. एक ब़ार दीपावली के अवसर पर बच्चे फुलझरियां, पटाखे जला रहे थे. जिसमें एक बच्चे के पास महताब की माचिस थी, वह उसमें से एक तीली निकालता और उसके छोर को पकड़कर डरते–डरते उसे माचिस से रगड़ता और जब रंगीन रौशनी निकलती तो डरकर उस तीली को ज़मीन पर फेंक देता था. चन्द्रशेखर से यह देखा नहीं गया, वह बोला –

“तुम डर के मारे एक तीली जलाकर भी अपने हाथ में पकड़े नहीं रह सकते ।  मैं सारी तीलियाँ एक साथ जलाकर उन्हें हाथ में पकड़े रह सकता हूँ ।”

जिस बालक के पास मेहताब की माचिस थी, उसने वह चन्द्रशेखर के हाथ में दे दी और कहा –
“जो कुछ भी कहा है, वह करके दिखाओ तब जानूँ.” चन्द्रशेखर ने माचिस की सारी तीलियाँ निकालकर अपने हाथ में ले लीं. उसने तीलियों की गड्डी माचिस से रगड़ दी, सारी तीलियाँ जल उठीं चन्द्रशेखर की हथेली जलाने लगीं, असह्य जलन होने पर भी चन्द्रशेखर ने तीलियों को उस समय तक नहीं छोड़ा, जब तक की उनकी रंगीन रौशनी समाप्त नहीं हो गई. जब उसने तीलियाँ फेंक दीं तो साथियों से बोला – “देखो हथेली जल जाने पर भी मैंने तीलियाँ नहीं छोड़ीं. “उसके साथियों ने देखा कि चन्द्रशेखर की हथेली काफ़ी जल गई थी. इस घटना के बाद पिताजी के डर से वह दो दिन तक घर नहीं गए. इनके पिता का व्यवहार आवश्यकता से अधिक कठोर था.

अपने पिता के व्यवहार से रुष्ट होकर 12 वर्ष के अवस्था में ही चन्द्रशेखर घर त्याग कर बम्बई भाग गए. कुछ दिन मजदूरी किये फिर प्रारम्भिक शिक्षा का ज्ञान प्राप्त कर संस्कृत की शिक्षा लेने काशी के एक संस्कृत पाठशाला में प्रवेश लिया. जहाँ निशुल्क शिक्षा एवं भोजन की भी वयस्था थी. असहयोग आंदोलन 1921 के समय चंदशेखर का उम्र मात्र 14 वर्ष था. उस समय इस आंदोलन का जनमानस में व्यापक प्रभाव था. विद्यार्थी, अध्यापक, सभी सरकारी स्कूलों को त्यागकर देश के स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़े और अंग्रेजी शिक्षण संस्थाओं का बहिस्कार कर दिया. गाँधी जी के साथ असहयोग आंदोलन में भाग लेते हुए जब उन्हें गिरफ्तार किया और मजिस्ट्रेट के समक्ष उपस्थित किया गया.

जब उनका नाम पूछा गया तो उन्होंने अपना नाम – “आजाद”  और पिता का नाम- “स्वतंत्रता” और घर का पता – “जेलखाना” बताया. उनकी इन बातों से नाराज होकर मजिस्ट्रेट ने उन्हें 15 बेंतो की सजा सुनाई  प्रत्येक बेंत लगने पर वह “भारत माता की जय” का नारा लगते थे.

1925 में हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन की स्थापना की गई आजाद जिसके सदस्य बनें. काकोरी कांड के आरोप में अशफाक उल्ला खां, बिस्मिल समेत अन्य मुख्य क्रांतिकारियों को मौत की सजा सुनाई गई. जिसके बाद आजाद ने इस संस्था का पुनर्गठन किया. भगवतीचरण वोहरा के संपर्क में आने के बाद चंद्रशेखर आजाद भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु के भी निकट आ गए थे.  इसके बाद भगत सिंह के साथ मिलकर चंद्रशेखर आजाद ने अंग्रेजी हुकूमत को डराने और भारत से खदेड़ने का हर संभव प्रयास किया. उन्होंने राष्ट्रीय आंदोलन के लिए सरकारी खजाने को भी लूटा. उनके नाम से पुलिस भी डरती थी.

एक बार भगतसिंह ने बातचीत करते हुए चन्द्रशेखर आज़ाद से कहा, ‘पंडित जी, हम क्रान्तिकारियों के जीवन-मरण का कोई ठिकाना नहीं, अत: आप अपने घर  का पता दे दें ताकि यदि आपको कुछ हो जाए तो आपके परिवार की कुछ सहायता की जा सके.’ चन्द्रशेखर सकते में आ गए और कहने लगे, ‘पार्टी का कार्यकर्ता मैं हूँ, मेरा परिवार नहीं. उनसे तुम्हें क्या मतलब ? दूसरी बात – उन्हें तुम्हारी मदद की जरूरत नहीं है और न ही मुझे जीवनी लिखवानी है. हम लोग नि:स्वार्थभाव से देश की सेवा में जुटे हैं, इसके एवज़ में न धन चाहिए और न ही ख्याति.

1928 में जब “साइमन कमीशन” के विरोध में लाला लाजपतराय की पुलिस के लाठी के प्रहार से मृत्यु हो गई, तो भगतसिंह और आजाद ने अपने क्रांतिकारी दल को अंग्रेजो के विरुद्ध और आधिक सक्रिय किया. 1929 में असेम्बली हाल में बम विस्फोट के कारण भगतसिंह, बटुकेश्वरदत्त, सुखदेव एवं राजगुरु आदि क्रांतिकारियों को बन्दी बना लिया गया. लाहोर में मुकदमा के समय आजाद आपने साथियों को छुड़ाने की योजना में लगे हुए थे परन्तु असफल हुए. आखिरकर 23 मार्च 1931 को भगतसिंह, सुखदेव एवं राजगुरु को फँसी दे दी गई और बटुकेश्वर दत्त को काले पानी की सजा.

अब आंदोलन के लिए जमा पैसे निकलने के लिए 27 फरवरी 1931 को आजाद इलाहबाद पहुंचे ही थे की उनके निकट सहयोगी ने उनकी खबर अंग्रेजो को दे दी. पहले से सज्ज अंग्रेज अधिकारी ने आजाद को एल्फ्रेड पार्क में घेर लिया. उस अवस्था में भी उन्होंने आपने साथियों को सुरक्षित बाहर निकाला. अब आजाद के पिस्तौल में सिर्फ एक गोली बचा था और अंग्रेज अधिकारी उन्हें जिन्दा या मुर्दा किसी भी रूप में पकड़ना चाहते थे. अंततः उन्होंने अंतिम गोली अपनी कनपट्टी पर मार लि और भारत के इतिहास में अमर हो गए. सम्पूर्ण भारतवर्ष उनके बलिदान को सदैव स्मरण रखेगा.


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