हमारे यहाँ जिंदगी कॉस्ट कटिंग से शुरू होती है और कॉस्ट कटिंग से लेकर सेविंग तक जाकर खत्म हो जाती है । घर-घर की यही कहानी है । ना जाने यहाँ इंसान पैदा होने से लेकर मरते दम तक खोया-खोया सा रहता है ।
जीवन को परेशानियों के बंधन में जकड़े कोल्हू के बैल सा खींचता जाता है और ये पीढ़ियाँ दर पीढ़ियाँ अनवरत चली आ रही है । कभी-कभी ए सब देख, सुन, समझ दिमाग काम करना बंद कर देता है । सोचते-सोचते दिमाग की नसें फटने लगती है । क्यों किसलिये कष्टों के पहाड़ को ढ़ोते-ढ़ोते यहां इंसान रोबोट के समान जिंदगी को मंद-मंद गति से जीने को मजबूर है । और यह सब कोई मजबूरी नहीं यहाँ खुद इंसान “आ बैल मुझे मार” के समान इन कष्टों के पहाड़ को अपने सर मोल ले लेता है ।
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समझ में नहीं आता लोग यहाँ खुद का खर्चा नहीं उठा पाने में सक्षम नहीं होते तो बच्चे क्यों अत्यधिक पैदा कर लेते, शादी करने की हड़बड़ाहट क्यों होती जब अपना पेट भरने का उपाय नहीं होता, मां-बाप को खिलाने को पैसा नहीं लेकिन बड़े-बड़े भोज क्यों करते और तो और बेटी को दहेज देने की चिंता में रात को नींद नहीं आती तो बेटा की शादी में दहेज क्यों ले लेते हैं । रात कट जाती है करवटें बदल इन मुद्दों पर सोचते विचारते । चिंतन की बात तो छोड़ दीजिए चिंतित होना रोज का सबब बन गया है । समझ नहीं आता बिना बुलाए टेंशन को अपने सर पर मोल लेना कौन सी समझदारी है । क्यों हम कुम्हार के चाक के भातीं नचते-नचते जिंदगी काट लेते हैं ? क्यों ?
चिंतन जारी है । जारी रहेगा ! लेखक : अविनाश भारतद्वाज