फाल्गुन मास और बसंती बयार

आकाश में लालिमा कोई तस्वीर को सुर्ख रंगों से भर रही है, अरहर की झुरमुटों में अभी भी अँधेरा है | मैं खेत-पथार घूमने निकला हूँ |

आम-लीची के मज्जर और सरसों-पलास-सेमल-कचनार के रंग-बिरंगे फूलों की पुष्प वर्षा में नव पल्लव की सेज पर कामदेव पुत्र ऋतुराज बसंत, महुआ की मादक गंध की बयार में कामातुर दीख रहा है, पंछियों की कलरव धुन पर कोयलिया के राग-बसंत में पूरा प्रकृति काम-संगीत में डूबा नज़र आ रहा है | गेहूँ-मकई-अरहर की यौवनावस्था चरम पर है, सब झूम-झूम कर इठलाती हुई नाच रही है | मैं गाम की पगडंडियों पर सर में गमछा बांधे गर्दन पर बांस की लाठी से दोनों हाथ फ़साये फगुआ का गीत गुनगुनाता जा रहा हूँ |

उधर अरहर की झुरमुटों में कोई जोड़ा उत्सव मना रहा है…मैं बड़का काका के नहर वाले खेत की पगडंडियों पर खड़ा खेत देख रहा था | यही वो खेत है जहाँ मैंने कभी गेहूँ की चार बालियों के बीच प्याज का फूल लगाकर पर घास छिलती रधिया (राधा) से प्यार का इजहार किया था…रधिया लजाकर बस इतना बोली थी- “ये फगुआ भर का प्यार तो नहीं है ना कान्हा ?”

फूलेसरा की हाक से मेरा यादों का भक टूटा…इमली के नीचें फूलेसरा गमछा बिछाकर बैठा हुक्का सुलगा रहा था |

“सुबह-सुबह शुरू हो गये…काका फेफरा में केकड़ा लग जाएगा…”

“अब कितना जियेंगे बेटा…ये हुक्का मुझे तेरी काकी सी लगती है…जब इसे होठों से लगाकर खिचता हूँ, उपर पीनी पर आग चरचराता है तो बाबा बैद्नाथ की कसम.. ऐसा लगता है जैसे मैं तेरी काकी के नाभि को चूम रहा हूँ और वो कसमसा रही हो…इसकी गरगर में तो अक्सर मुझे तेरी काकी के पेट की गरगराराहट सुनाई देती है |”

फूलेसर चुनौटी से सुरती निकाल नाक में लगाया और जोड़ से एक छीक मारी |

मेरे मुंह से अनायास ही निकल गया- “असंतृप्त प्रेतात्मा…वहशी… जीते जी कभी विदेसरा के माई को सुख नहीं दिया और आज गप्प से सुरती बना रहा है “

10-15 बसंतों के बाद गाम दूर हो गया था, पटना में चार तल्ले पर 10 X 12 की कोठली से कभी पता ही नही चलता था…सिर्फ खजूर के पेड़ दीखते थे | पर यहाँ भी मैं कभी कभी बसंत देख लेता था.. मैं खिड़की से उसे देखा करता था… वो बिना दुपट्टे के नहा कर कपडा सुखाने छत पर आती थी…बार-बार झुककर बाल्टी से कपड़े उठाती थी…फटकारती थी फिर डोरी पर कपड़ा डाल गर्दन झटक कर अपने गालों से बालों को बड़ी शरारत से हटाती थी, मैं उसके यौवन में बसंत देखता था…

इस बार कई सालों बाद फगुआ में गाम आया हूँ…परसों पूर्णिमा है…परसों रात में  संजय पुरोहित जी आग में होला (अधपका नव अन्न) डालकर पारंपरिक रूप से सम्मत (होलिकादहन) जलाएंगे…बचपन में सम्मत की रात पूरा गाम हम बच्चा टोली से परेशान रहता था…किसी को नही छोड़ते थे हम…किसी की लकड़ी, किसी का गोयठा, किसी का खर-पुआल…यहाँ तक की बांस की बेड़ी और मचान भी उखाड़ कर सम्मत के लिए चुराकर ले आते थे | पर आज पश्चिमी दिखावे का चलन और आधुनिकतावाद ने सामजिक परम्पराओं को पछाड़ दिया है, परम्पराओं को रुढ़िवादी विचारधारा का नाम दे दिया गया है |

बसंतोत्सव के चरमोत्कर्ष पर मनाया जानेवाला यह पर्व बहुत ही आनंददायी होता था | आज की तरह. मांस-मदिरा, लड़ाई-दंगा, अमर्यादित और अश्लीलता नहीं होती थी | सुबह से दोपहर तक रंग-गुलाल में मुख लाल-हरा-पिला करते थे, मीठे पकवान- मालपुआ, दही-बड़ा खाते थे और शाम में गाँव के सभी मर्द टोली बनाकर फाग गाने निकल पड़ते थे | लोटा भर भांग पीने के बाद फुचबा फ़ाग का सुर लगाता था | चनमा चमाड़ के ढोल की थाप आज भी मेरे कानों में गूंजती है | मुझे फाग नही आता था तो बस झाल खनकाते हुए आ-आ करते रहता था | हाँ जोगीरा गाते समय सारा-रा-रा-रा खूब करता था | बीच-बीच में बांस की लंबी पिचकारी से लोगों को भिंगाया भी करता था |

ख्यालों का दौर में चलते चलते अभी अपने अहाते में पहुंचा ही था कि अचानक

“ओह्ह्ह….भौजी….ये क्या किया आपने…? ?”

“बुरा ना मानो होली है देवर जी”

छोटकी भौजी ने भर बाल्टी गोबर-पानी मिलकर पीछे से डाल दिया था | फिर तो हमारी होली शुरू हो गयी…मिट्ठी-धुल-गोबर…नाले का कचड़ा भी…देवर-भाभी में जमकर होली हुई….| गुनगुनी धुप में भींगा बदन और अलबेली बसंती बयार भौजी को छेड़ रहा था…वह सिहर रही थी | एक पल के लिए मुझे छोटकी भौजी में रधिया दिख गयी | दादीमाँ चिल्ला रही थी- ‘बीमार पड़ोगे दोनों…जल्दी नहाओ’

पहले का रंग-गुलाल पलाश, सिंहार, तुलसी, हल्दी, चंदन, अमलतास, चुकंदर से बनता था…प्राकृतिक सुगंध से भरा | आज की तरह सिंथेटिक नही…आज तो ऐसे-ऐसे पेंट आ गया है जो चेहरे पर पुता तो चमड़ी ले कर निकलेगा…फोड़े-फुंसी तो आम बात हो गयी है |

गाँव से देशी रंगों का अभाव का एक बड़ा कारण यह भी है की अब वो देशी पेड़-पौधे भी दुर्लभ हो रहे हैं…पर गाँव को गाँव देखनेवाले हर शहरी देहाती ( वो पीढ़ी जो गाँव में पैदा हुई और शहर में बस गयी ) से मेरी व्यक्तिगत गुजारिश होगी की कुछ देशी पेड़ लगायें जैसे- पलाश, कचनार, कदंब, जलेबी, सेमल आदि | बसंत भी बसंत लगेगा और गाँव भी खूबसूरत होगा | फिर फगुआ में गाँव आइये, सब मिलकर रात को हल्दी की गाँठ, मेहँदी, टेसू के फूल सब पानी में फूलायेंगे और देशी रंग बनायेंगे…फिर इको फ्रेंडली होली होगा..| जोगीरा सारा-रा-रा….!!

“पिला, हरा या गेरुआ, रंग सब देशी होय

बेपरवाह गुरु कह रहो होली में बस प्रेम दिल में होय !!”


लेखक : अविनाश कुमार

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