दारा शिकोह! इतिहास में वाजिब जगह तलाशता शहजादा!

एक ऐसा शख्स जो विविधतापूर्ण भारतीय संस्कृति में समन्वयकारी तत्वों की खोज में ताउम्र लगा रहा। जो सच्चे अर्थों में धार्मिक सहिष्णुता एवं धर्म निरपेक्षता का हिमायती था। भारतीय इतिहास द्वारा विस्मृत एक अनोखा एवं अद्भुत व्यक्तित्व जिसे सूफियों एवं मनीषियों की पंगत में बैठना अच्छा लगता था।हुमायूं एवं अकबर के गुणों से लैस था वह, तभी तो उसे “छोटा अकबर” कहा जाता है।

कहते हैं शाहजहां के ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती के दरबार में घुटने टेककर मांगी गई मन्नत का प्रतिफल था दारा शिकोह। सचमुच वह अपने नाम के अनुरूप सितारों का मालिक तो था पर उसकी पहचान ना की जा सकी । उसका जीवन यापन बड़े नाजों के साथ हुआ था। उसकी औपचारिक शिक्षा कुरान, इतिहास, फारसी कविता और सुलेख की हुई थी। धर्म, दर्शन एवं अध्ययन में उसकी गहरी रूचि थी।

अपने अध्ययन के बदौलत वह आजाद खयालात का था । वह बहुआयामी व्यक्तित्व का मालिक था। उच्च कोटि का धर्मशास्त्री, प्रखर विचारक, प्रतिभाशाली सुकुमार कवि, ललित कलाओं का ज्ञाता और ना जाने क्या-क्या। उसका उठना बैठना बाबा लाल, समरद कशानी, मुल्ला शाह(दारा के अध्यात्मिक गुरु), सूफी संत हज़रत मियां मीर, गुरु हर राय जैसों के साथ था। बर्नियर ने माना है उसमें अच्छे गुणों की कोई कमी ना थी।

अकबर ने हिन्दुओं का प्रबल समर्थन जिस चालाक “सुलह-ए-कुल” के सिद्धांत की बदौलत पाया था वह जहाँगीर एवं शाहजहां के गलत धार्मिक नीतियों के कारण दुर्बल पड़ गई थी। दारा शिकोह विभिन्न धर्मों, संस्कृतियों एवं दर्शन में मेलजोल चाहता था । लिहाजा हिन्दु धर्म के एकेश्वरवाद एवं इस्लाम के(सूफी) परंपराओं के बीच समानता तलाशता एक मौलिक पुस्तक “मज्म-उल-बहरीन” (दो सागरों का मिलन) उन्होंने लिखा। वे एक ही ईश्वर की प्राप्ति के मार्गों के रूप में विभिन्न धर्मों को देखा। उसने काशी के पंडितों की सहायता से अपनी देखरेख में भागवत् गीता एवं योगवाशिष्ठ का अनुवाद फारसी में करवाया। बावन उपनिषदों का अनुवाद “सीर-ए-अकबर”(सबसे बड़ा रहस्य) नाम से करवाया। उसने उपनिषदों का सबसे बड़ा रहस्य एकेश्वरवाद को माना।

सूफीवाद से गहरा प्रभावित और तौहीद का जिज्ञासु दारा शिकोह सूफियों के जीवन वृत्त पर “सफीनात अल औलिया” , भारत में कादिरी सिलसिले के सूफियों के जीवन वृत्त पर ” सकीनात अल औलिया” , सूफी प्रथाओं का वर्णन करते हुए “रिसाला ए हकनुमा” एवं अध्यात्मिक मार्ग के विभिन्न चरण “तरीकात ए हकीकत” के माध्यम से सूफीवाद की दार्शनिक विवेचना प्रस्तुत की।

फारसी में लिखने का मुख्य उद्देश्य था कि चुँकि फारसी राज-काज की भाषा थी तो हिन्दू एवं मुस्लिम दोनो धर्मों के बौद्धिकों में यह समान रूप से प्रचलित थी। लोग एक दूसरे के धर्मों को जाने समझें। और जो समरसता का लोप समाज में होता जा रहा था वह फिर से कायम हो। सामंजस्यपूर्ण सहअस्तित्व बनी रहे और धार्मिक विवाद खत्म हो।

कहाँ तो होना यह चाहिए था कि उसे सर आँखों पर बिठाया जाता पर हुआ यह कि दारा शिकोह के सर्वधर्म समभाव एवं सम्मिश्रण की प्रवृत्ति के कारण कट्टरपंथियों के बीच इस्लाम के क्षीण होने का भय व्याप्त हो गया और उसे धर्मद्रोही करार दिया गया। जिसे वास्तविक हीरो होना था उसे जीरो बनाने का प्रयास चल पड़ा। खैर……

कोमल हृदय दारा शिकोह का कविता संग्रह “अक्सीर ए आजम” सर्वेश्वरवादी प्रकृति का गायन है। उसके सुलेखों और चित्रों का संग्रह पेशेवरों को भी मात करता है। वास्तुकला में उसका योगदान लाहौर के नादिरा बानू की कब्र, मियां मीर का श्राईन, दिल्ली की लाईब्रेरी, श्रीनगर के मुल्ला शाह मस्जिद और पीर महल आदि के रूप में मिलता है।उस राजपरिवार में उसका एकल विवाह आश्चर्यजनक घटना थी। दारा का दाम्पत्य जीवन काफी सुखदायक था।

मुमताज महल की मृत्यु और निरंतर रुग्णता के दिनों में शाहजहाँ इस सत्य से वाकिफ हो चला था कि हिन्दुस्तान को समझने वाला तथा उदारता एवं दयालुता के साथ सबको साथ लेकर चलने वाला दारा शिकोह ही भविष्य के लिए बेहतर बादशाह साबित होगा फलतः साम्राज्य का भार उसने इसे सौंप दी।

पर होनी को कुछ और ही मंजूर था। राजा के जिन्दा रहते उत्तराधिकार के लिए ऐसा खूनी युद्ध भारत ने नहीं देखा था। सभी धर्मों का आदर करना एवं हिन्दू धर्म एवं दर्शन तथा ईसाई धर्म में दिलचस्पी दारा शिकोह को भारी पड़ी। सच्चा मुसलमान जो नियमित नमाज एवं अल्लाह के नाम की तस्बी पढ़ा करता था औरंगजेब और मुराद के बीच “अहदनामा” में “रईस-अल-मुलाहिदा” (अपधर्मी शहजादा) कहा गया और खूब प्रचारित किया गया।

प्रशासन एवं सैन्य मामलों में दक्षता की कमी ही थी जो “धरमत” एवं “सामूगढ़” के युद्ध में दारा शिकोह की दुर्बलताएं स्पष्ट कर दी। “देवराय” का युद्ध उसे भारतीय राजनीतिक परिदृश्य से बाहर फेक दिया। जींदा पीर /शाही दरवेश ने समन्वयकारी तत्व पर मुकम्मल जीत हासिल कर ली।

लोगों को पहचानने की संकुचित समझ का ही नतीजा था कि दौड़ते-भागते दादर का जमींदार मलिक जीवन जिसे कई बार दारा शिकोह ने शाहजहां के उग्र क्रोध से बचाया था उससे आश्रय माँगने गया जिसने उसे बंदी बनाकर औरंगजेब को सौंप दिया।

फिर तो दिल्ली की प्रजा ने अपने राजा की वैसी दर्दनाक मौत देखी जो पहले कभी ना देखी थी। प्रजा में लोकप्रिय होना राजा होने की योग्यता नहीं होती इसपर मोहर लग चुकी थी।उसकी हत्या को न्यायोचित ठहराने हेतु फिर से धर्म को हथियार बनाया गया।

दारा शिकोह लगभग विस्मृत सा कर दिया गया । क्या इतिहास केवल राजाओं को याद रखने का दस्तावेज है? क्या जिस तरह साहित्य के इतिहास को पुनर्मूल्यांकित कर कबीर को यथेष्ठ स्थान दिया गया उसी तरह मुगलकालीन भारतीय इतिहास को पुनर्मूल्यांकित कर दारा शिकोह को उचित स्थान नहीं मिलना चाहिए ?


आलेख : निशिकांत ठाकुर 

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