कुछ अनकहे से अल्फ़ाज़

डियर क्रश 

डेढ़ साल तक मैं तुम्हें क्लास में देखता रहा परन्तु नाम तक नहीं पूछ सका. ऐसा नहीं है कि मैं पुराने ख़यालातों का था जिसे लड़कियों से बात करने में डर अथवा झिझक होती है. मैं फट्टू या डरपोक भी नहीं था. बात करने के तौर तरीकों में भी माहिर था.. और हूँ भी ! सामने वाले पर अपना प्रभाव छोड़ना भी अच्छे से आता था. पर वहाँ का माहौल थोड़ा अलग था. वह नसीब सर की क्लास थी, जहाँ लड़कियाँ पीरियड के दौरान केवल सर से ही बात करती थी. पीरियड टाईम से पहले आना मेरे लिए संभव नहीं था. हरीन्द्र सर के पास 7-9 बजे सुबह क्लास करके निकलने के बाद दौड़ते आने के बाद ही नसीब सर के 9-10 बजे सुबह वाले बैच में घुस पाता था. नसीब सर की बहुत थोड़ी बुरी आदतों में से एक थी कि वे दूसरा अवसर किसी को नहीं देते थे. एक बार उनकी नजरों से कोई गिर गया तो दूजी बार खड़े होने का लाख प्रयास कर ले वे व्यंगबाणों से पुनः गिरा दिया करते थे. एक लड़के को लड़की से बात करने का प्रयास भी करते हुए पकड़े जाने पर चरित्रहीन समझ लेते थे फिर उसकी कहके लेते थे. मैं उनकी अच्छे लड़कों वाली सूची से अपना नाम कटा हुआ नहीं देखना चाहता था.

 तुम्हें पहली बार तब देखा था जब मैं सर की 4-5 बजे शाम वाले बैच को छोड़ कर 9-10 बजे सुबह वाले बैच में आया था. क्लास में आकर बैठा और फिर माहौल का मुआयना करने लगा. मसलन कितने स्टुडेंट्स हैं, कितने ग्रुप्स हैं, कौन-कौन से चेहरे जाने-पहचाने हैं. इन्हीं प्रेक्षणों के दौरान मेरी आँखें खिलखिलाते होठों से टकराई, थोड़ी देर के लिए मेरी नजरें ठहरी और उसके आधे चेहरे का मुआयना करने के बाद ब्लैकबोर्ड की ओर चली गई क्योंकि सर का प्रवेश हो चुका था. फिर पढ़ाई के दरम्यान उस चेहरे की ओर ध्यान नहीं गया. एक दो हफ्तों तक यूँ ही सर के आने से पहले किस्तों में दस-बारह सेकेण्ड्स के लिए कनखियों से उसके आधे चेहरे को देखता रहा. छोटा सा चेहरा, पतले होंठ, पूँछ की तरह चोटी, पनियाई आँखें… जैसे अभी छलक जाएँ ! छोटी सी नाक.. कुल मिलाकर बहुत ही प्यारा सा चेहरा. तुम ही तो थी, कभी लगातार तेरह सेकेण्ड्स से अधिक नहीं देखा था तो कानूनन कोई मुकदमा भी दायर नहीं कर सकती हो. खैर, यह सिलसिला जारी रहा.

एक दिन हरीन्द्र सर की क्लास नहीं जाना था…. छुट्टी थी…! तो सीधे रूम से ही नसीब सर की क्लास जा रहा था. रूम क्लास से बमुश्किल बीस मीटर दूर होगा तो मैं स्वाभाविक रूप से 8:59 में लॉज से निकला. बाहर सड़क पर आते ही तुम आती दिखी. पहली बार तुम्हारा पूरा चेहरा देखा था मैंने. तुम अपनी मस्तानी चाल में चली आ रही थी. मैंने तुम्हारी ओर हल्के से देखा और जल्दी से क्लास की ओर बढ़ गया. तुम आती रही होगी अपनी चाल में. उस दिन तुम्हें देखने का कोटा पहले ही भर गया था तो क्लास में तुम्हारी ओर नहीं देखा. संयोगवश मुझे 10-11 बजे सुबह भी एक क्लास जाना होता था तो तुम्हें जाते हुए नहीं देख पाता था. बस क्लास में ही कनखियों से तुम्हारे लहराते होठों को देखना और फिर पढ़ने में व्यस्त हो जाना. धीरे-धीरे पता नहीं कब तुम्हें कनखियों से देख लेना मेरी आदत बन गई. तीन-चार हफ्ते बाद एक दिन Doubt Clearing Class होने की वजह से हरीन्द्र सर के क्लास फिर नहीं जाना था तो सीधा रूम से ही नसीब सर की क्लास आ रहा था. रूम से निकल कर तीन या चार कदम चलने के बाद मैंने आगे की ओर नजरें डाली तो तुम दिखी. चूंकि तुम मुझसे दस कदम आगे थी तो तुम्हें थोड़ी देर इत्मीनान से देख सकता था और माफ करना अठारह से बीस सेकेण्ड्स के लिए देखा भी. तुम अपने गुलाबी बैग के कैरी बेल्ट में दोनों अंगूठों को फँसाए चली जा रही थी और चलना भी यूँ जैसे sin(x) का ग्राफ  हो. पूरी सड़क को कवर करते हुए जा रही थी.

एक दिन तुमने भी मेरी तरफ देखा था शायद पहली बार. किसी और दिन यह मेरे लिए सबसे खुशी का दिन हो सकता था मगर उस दिन हुआ यूँ था कि सर ने तुम्हें खड़े होने के लिए कहा और फिर तीन सवाल पूछ दिए. तुम्हें सोशल क्रीड़ाओं से कभी समय मिला होता तब तो जबाब देती. अचानक सर ने मुझे खड़े होने के लिए कहा और वही तीनों सवाल दाग दिए. मैं कमबख़्त गदहा खड़े होते ही स्वाभिमानी बन गया और सारे प्रश्नों के उत्तर कर्त्तव्यनिष्ठ की भांति देता चला गया. एक क्षण को भी अगर तुम्हारे बारे में सोच लेता तो एक भी उत्तर नहीं देता क्योंकि पता होना चाहिए था कि तुम्हारी घनघोर बेइज्जती होगी. इधर मेरे जबाब ख़त्म हुए और सर ने तुम्हें घूरते हुए तुम्हारी बेइज्जती शुरू की, मैंने तुम्हारी तरफ डरते हुए देखा कि तुम मुझे घूरते हुए खाने की कोशिश कर रही थी, फिर मैंने सर की ओर देखा और अपना सिर शर्म से झुका लिया. सर ने तुम्हें कहा, “इसे देखो यह है स्टुडेंट और खुद को देखो तुम हो पेप्सोडेंट. पूरी क्लास में दाँत दिखाते रहती हो. पढ़ाई लिखाई से कोई सरोकार ही नहीं है. बैठो….” 

तुमने बैठते हुए मेरी ओर देखा यूँ जैसे जॉर्ज बुश सद्दाम हुसैन को देखता था. मैं समझ गया कि अब तुम कभी भी मुझसे बात तो करने से रही तो मैंने इसलिए भी बात करने की कोशिश नहीं की. हाँ मगर कनखियों से देख लेना अंतिम क्लास तक जारी रहा. उन डेढ़ सालों में तुम्हें इतनी अच्छी तरह से देख लिया कि अगले कई दशकों तक तुम्हारी तस्वीर मेरे जेहन में बरकरार रहेगी. ठीक ही लिखा था मैंने-
         “दीदार-ए-हुस्न को चाहूँ तसव्वुर-ए-रुख्सार तेरा,
      मगर जालिम इक नजर काफी है तेरी मुद्दतों दीदार को”

तुम मेरी क्रश थी और प्रेमिका बनने का प्रस्ताव देकर मैं इस एकतरफे से रिश्ते को खोना नहीं चाहता था. कभी-कभार आने-जाने के क्रम में सड़क पर नजरें टकराईं थीं और तुमने उन्हीं नजरों से शायद पूछा भी हो, “हाँ जी, कहिए कुछ काम.” और मैंने जैसे नजरें नीची करते हुए जबाब दिया हो, “नहीं तो, कुछ भी तो नहीं.” इस तरह शायद तुम्हारी नजर में अच्छा बनने की कोशिश में झूठा बनता गया.

एक दिन तुम क्लास जा रही थी और मैं भी पीछे से आ रहा था. बीच सड़क पर दो रोटियां गिरी हुई थी जिन्हें तुमने पैरों से मैनहोल के ढ़क्कन के पास छुपाया था. बस एक यही बात का जबाब दे दो कि वह तुमने रोड की सफाई के लिए किया था या फिर उन रोटियों को जाते समय अपने साथ घर ले गई थी. 

तुम्हारा वह सड़कों पर लहरा कर चलना, अपनी सहेलियों से कुत्ते के छोटे बच्चे की तरह उछल-उछल कर मिलना, तुम्हारी वे अग्निवर्षा करती आँखें ये सब अब बहुत याद आती हैं. अब तो तुम्हें देखना असंभव ही है इसीलिए तो मैंने लिखा है-

“दीदार तेरा मुमकिन नहीं तो क्या
        तसव्वुर के सहारे ज़िंदगी काट लेंगे”  
                                    – तुम्हारा दूरदर्शी कद्रदान


आलेख : शिवेश आनन्द

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